Monday, 10 November 2014

दुसर्याचे आजेंडे










बरेच जन आमच्याकडे आमच्याच शत्रुचे आजेंडे घेवून येतात आणि त्या अजेंड्यावर काम करावे आशी इच्छा प्रगट करतात.धमकावतात सुद्धा .

काही तर आगदी चिडून ,लालबुंद होवून आगदी तापून पाठवले जातात.आमच्या शत्रुने आगदी ट्रेन करुन पाठवलेले असतात.ते आल्याबरोबर दिसतात तर आमचे पन बोली बोलतात शत्रुची .


"तुम्ही या विषयावर का बोलत
नाहित "

"या जमाती या जातिबद्दल किंवा या धर्मीयांबद्दल बद्दल तुमचे काय मत आहे "

"बघा हे किती माजले ,बघा यांची कट्टरता "

असेच त्यांचे काहिसे प्रश्न आसतात.अमचे अर्ध्या हळकुंडाने पिवळे झालेले लगेच पघळतात आणि त्यांचे मुद्दे मान्य करुन त्यांच्या आजेंड्यांवर काम करायला तयार होतात.

 प्रश्न हा आहे की त्यान्नी आनलेल्या आजेंड्यावर किंवा मुद्यांवर आपन पुर्वीपासुनच काम करतो का ?
आपले मुद्दे आणि आजेंडा काय आहे ,हे पहायला नको का ?
आपले सोडून दुर्याचे कसे मान्य करायचे ?


माझ्याकडे आसे बरेचजन फुकटे, शत्रुचे आजेंडे घेवून येतात .

आगदी थोड्याच दिवसापुर्वी काही कट्टर जाति व धर्मियांबद्दल बोलण्यासाठी येकजन आला होता.

मी म्हनालो बाबा तुझ्या समस्येसाठी आम्ही आमचे संघटण निर्माण नाही केले.त्यासाठी महाराष्ट्रात आणि भारतभरात काही पक्ष आणि संघटना कार्यरत आहेत तु त्यांच्याकडून मदत मिळव त्याना म्हनावे शत्रुचा बंदोनस्त करुन द्या .आणि बंदोबस्त करणे त्यांना जमत नसेल तर तसे त्यांच्याकडुन लिहून आन.कारण ह्या समस्येसाठी ते जर काम करत आसतित तर मग ती समस्या त्यान्नीच सोडवावी.त्याना नाहिच जमले तर आम्ही पुढे काय करायचे ठरवु.
तु माझ्याकडे चुकिच्या पत्यावर आलास .
 आमचा आजेंडा हा समता, स्वतंत्रता,बंधुत्व आणि न्याय यावर आधारीत आदर्ष समाज आणि राष्ट्र उभे करणे हा आहे.शिवरायाना अपेक्षीत असलेले रयतेचे राज्य आनने हा आहे.जिथे सर्

Saturday, 27 September 2014

ओशो का वह प्रवचन, जिससे ईसायत तिलमिला उठी थी और अमेरिका की रोनाल्‍ड रीगन सरकार...


ओशो का वह प्रवचन, जिससे ईसायत तिलमिला उठी थी और अमेरिका की रोनाल्‍ड रीगन सरकार ने उन्‍हें हाथ-पैर में बेडि़यां डालकर गिरफ्तार किया और फिर मरने के लिए थेलियम नामक धीमा जहर दे दिया था। इतना ही नहीं, वहां बसे रजनीशपुरम को तबाह कर दिया गया था और पूरी दुनिया को यह निर्देश भी दे दिया था कि न तो ओशो को कोई देश आश्रय देगा और न ही उनके विमान को ही लैंडिंग की इजाजत दी जाएगी। ओशो से प्रवचनों की वह श्रृंखला आज भी मार्केट से गायब हैं। पढिए वह चौंकाने वाला सच


ओशो:


जब भी कोई सत्‍य के लिए प्‍यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्‍सुक हो उठता है। अचानक पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है, जितने पुराने प्रमाण और उल्‍लेख मौजूद हैं। आज से 2500 वर्ष पूर्व, सत्‍य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। ईसा मसीह भी भारत आए थे। ईसामसीह के 13 से 30 वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्‍लेख नहीं है। और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्‍योंकि 33 वर्ष की उम्र में तो उन्‍हें सूली ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से 30 तक 17 सालों का हिसाब बाइबिल से गायब है! इतने समय वे कहां रहे? आखिर बाइाबिल में उन सालों को क्‍यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्‍हें जानबूझ कर छोड़ा गया है, कि ईसायत मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसा मसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं।

यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्‍मे, यहूदी की ही तरह जिए और यहूदी की ही तरह मरे। स्‍मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्‍होंने तो-ईसा और ईसाई, ये शब्‍द भी नहीं सुने थे। फिर क्‍यों यहूदी उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्‍यों ? न तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक-ठाक जवाबा है और न ही यहूदियों के पास। क्‍योंकि इस व्‍यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। ईसा उतने ही निर्दोष थे जितनी कि कल्‍पना की जा सकती है।

पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्‍म था। पढ़े-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्‍पष्‍ट देख लिया था कि वे पूरब से विचार ले रहे हैं, जो कि गैर यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ले रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्‍हें समझ आएगा कि क्‍यों वे बारा-बार कहते हैं- ' अतीत के पैगंबरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्‍थर से देने को तैयार रहना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्‍हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।' यह पूर्णत: गैर यहूदी बात है। उन्‍होंने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।

ईसा जब भारत आए थे-तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्‍यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए थे। पर बुद्ध ने इतना विराट आंदोलन, इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्‍क उसमें डूबा हुआ था। बुद्ध की करुणा, क्षमा और प्रेम के उपदेशों को भारत पिए हुआ था।

जीसस कहते हैं कि अतीत के पैगंबरों द्वारा यह कहा गया था। कौन हैं ये पुराने पैगंबर? वे सभी प्राचीन यहूदी पैगंबर हैं: इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,- कि ईश्‍वर बहुत ही हिंसक है और वह कभी क्षमा नहीं करता है!? यहां तक कि प्राचीन यहूदी पैगंबरों ने ईश्‍वर के मुंह से ये शब्‍द भी कहलवा दिए हैं कि मैं कोई सज्‍जन पुरुष नहीं हूं, तुम्‍हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईर्ष्‍यालु हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं है, वे सब मेरे शत्रु हैं। पुराने टेस्‍टामेंट में ईश्‍वर के ये वचन हैं। और ईसा मसीह कहते हैं, मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्‍मा प्रेम है। यह ख्‍याल उन्‍हें कहां से आया कि परमात्‍मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाए दुनिया में कहीं भी परमात्‍मा को प्रेम कहने का कोई और उल्‍लेख नहीं है। उन 17 वर्षों में जीसस इजिप्‍त, भारत, लद्दाख और तिब्‍बत की यात्रा करते रहे। यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्‍कुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं के एकदम से विपरीत थीं। तुम्‍हें जानकर आश्‍चर्य होगा कि अंतत: उनकी मृत्‍यु भी भारत में हुई! और ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्‍य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्‍या हुआ? आजकल वे कहां हैं ? क्‍योंकि उनकी मृत्‍यु का तो कोई उल्‍लेख है ही नहीं !

सच्‍चाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्‍तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्‍योंकि यहूदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब-करीब 48 घंटे लग जाते हैं। चूंकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं तो बूंद-बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्‍वस्‍थ है तो 60 घंटे से भी ज्‍यादा लोग जीवित रहे, ऐसे उल्‍लेख हैं। औसत 48 घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छह घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छह घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है।

यह एक मिलीभगत थी, जीसस के शिष्‍यों की पोंटियस पॉयलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वो रोमन वायसराय था। जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्‍य के अधीन था। निर्दोष जीसस की हत्‍या में रोमन वायसराय पोंटियस को कोई रुचि नहीं थी। पोंटियस के दस्‍तखत के बगैर यह हत्‍या नहीं हो सकती थी।पोंटियस को अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूंकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए। जीसस वहां एक मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॉयलट दुविधा में था। यदि वह जीसस को छोड़ देता है तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्‍मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह जीसस को सूली दे देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा, मगर उसके स्‍वयं के अंत:करण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्‍यक्ति की हत्‍या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था।

तो पोंटियस ने जीसस के शिष्‍यों के साथ मिलकर यह व्‍यवस्‍था की कि शुक्रवार को जितनी संभव हो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूंकि सूर्यास्‍त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार का कामधाम बंद कर देते हैं, फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है। यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्‍थगित किया जाता रहा। ब्‍यूरोक्रेसी तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है। अत: जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया गया और सूर्यास्‍त के पहले ही उन्‍हें जीवित उतार लिया गया। यद्यपि वे बेहोश थे, क्‍योंकि शरीर से रक्‍तस्राव हुआ था और कमजोरी आ गई थी। पवित्र दिन यानि शनिवार के बाद रविवार को यहूदी उन्‍हें पुन: सूली पर चढ़ाने वाले थे। जीसस के देह को जिस गुफा में रखा गया था, वहां का चौकीदार रोमन था न कि यहूदी। इसलिए यह संभव हो सका कि जीसस के शिष्‍यगण उन्‍हें बाहर आसानी से निकाल लाए और फिर जूडिया से बाहर ले गए।

जीसस ने भारत में आना क्‍यों पसंद किया? क्‍योंकि युवावास्‍था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्‍होंने अध्‍यात्‍म और ब्रह्म का परम स्‍वाद इतनी निकटता से चखा था कि वहीं दोबारा लौटना चाहा। तो जैसे ही वह स्‍वस्‍थ हुए, भारत आए और फिर 112 साल की उम्र तक जिए। कश्‍मीर में अभी भी उनकी कब्र है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रू भाषा में है। स्‍मरण रहे, भारत में कोई यहूदी नहीं रहते हैं। उस शिलालेख पर खुदा है, जोशुआ- यह हिब्रू भाषा में ईसामसीह का नाम है। जीसस जोशुआ का ग्रीक रुपांतरण है। जोशुआ यहां आए- समय, तारीख वगैरह सब दी है। एक महान सदगुरू, जो स्‍वयं को भेड़ों का गड़रिया पुकारते थे, अपने शिष्‍यों के साथ शांतिपूर्वक 112 साल की दीर्घायु तक यहांरहे। इसी वजह से वह स्‍थान भेड़ों के चरवाहे का गांव कहलाने लगा। तुम वहां जा सकते हो, वह शहर अभी भी है-पहलगाम, उसका काश्‍मीरी में वही अर्थ है- गड़रिए का गांव
जीसस यहां रहना चाहते थे ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सकें। एक छोटे से शिष्‍य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्‍यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्‍होंने मरना भी यहीं चाहा, क्‍योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहां (भारत में)जीवन एक सौंदर्य है और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहां (भारत में)मरना भी अत्‍यंत अर्थपूर्ण है। केवल भारत में ही मृत्‍यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्‍तुत: तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।

यहूदियों के पैगंबर मूसा ने भी भारत में ही देह त्‍यागी थी | इससे भी अधिक आश्‍चर्यजनक तथ्‍य यह है कि मूसा (मोजिज) ने भी भारत में ही आकर देह त्‍यागी थी! उनकी और जीसस की समाधियां एक ही स्‍थान में बनी हैं। शायद जीसस ने ही महान सदगुरू मूसा के बगल वाला स्‍थान स्‍वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्‍यों कश्‍मीर में आकर मृत्‍यु में प्रवेश किया?

मूसा ईश्‍वर के देश इजराइल की खोज में यहूदियों को इजिप्‍त के बाहर ले गए थे। उन्‍हें 40 वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्‍होंने घोषणा की कि, यही वह जमीन है, परमात्‍मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं और अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालों, अब तुम सम्‍हालो!

मूसा ने जब इजिप्‍त से यात्रा प्रारंभ की थी तब की पीढ़ी लगभग समाप्‍त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गए, जवान बूढ़े हो गए और नए बच्‍चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ यात्रा की शुरुआत की थी, वह बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थेा उन्‍होंने युवा लोगों शासन और व्‍यवस्‍था का कार्यभारा सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए। यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्‍त्रों में भी, उनकी मृत्‍यु के संबंध में , उनका क्‍या हुआ इस बारे में कोई उल्‍लेख नहीं है। हमारे यहां (कश्‍मीर में ) उनकी कब्र है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिब्रू भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।

मूसा भारत क्‍यों आना चाहते थे ? केवल मृत्‍यु के लिए ? हां, कई रहस्‍यों में से एक रहस्‍य यह भी है कि यदि तुम्‍हारी मृत्‍यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं, वरन भगवत्‍ता की ऊर्जा तरंगें हों, तो तुम्‍हारी मृत्‍यु भी एक उत्‍सव और निर्वाण बन जाती है।

सदियों से सारी दुनिया के साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनशील हैं, उनके लिए इससे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्‍वी पर कहीं नहीं हैं। लेकिन वह समृद्धि आंतरिक है।

Sunday, 31 August 2014

मित्रांनो...
बाबासाहेबांचे हे पत्र वाचून, तुमच्या डोळ्यातून पाणी नाही आले तर , मग बोला....
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रमा.... !

कशी आहेस रमा तू? तुझी, यशवंताची आज मला खूप आठवण आली. तुमच्या आठवणीनं मन खूपच हळवं झालं आहे आज. मागल्या काही दिवसातली माझी भाषणे फारच गाजली. परिषदेतील सर्वोत्कृष्ट भाषणे, प्रभावी वक्तृत्वाचा सर्वोत्कृष्ट नमुना असे माझ्या भाषणांबद्दल इकडच्या वर्तमानपत्रांमधून लिहून आले आहे. या पहिल्या गोलमेज परिषदेतील माझ्या भूमिकेचा विचार मी करीत होतो. आणि डोळयापुढे आपल्या देशातील सर्व पीडितांचे संसार माझ्या डोळयासमोर उभे राहिले.


दुःखांच्या डोंगराखाली ही माणसे हजारो वर्षे गाडली गेली आहेत. या गाडलेपणाला पर्याय नाही हीच त्यांची समजूत आहे. मी हैराण होतो आहे रमा ! पण मी झुंज देतो आहे. माझी बौध्दिक शक्ती परमवीर झाली होती जणू ! खूप भावना मनात दाटून आल्या आहेत. खूपच हळवे झाले आहे मन. खूपच व्याकूळ झाले आहे मन! आणि घरातल्या तुम्हा सर्वांची आठवण आली. तुझी आठवण आली. यशवंताची आठवण आली.


मला तू बोटीवर पोचवायला आली होतीस. मी नको म्हणत होतो तरी तुझे मन तुला धरवले नाही. तू मला पोचवायला आली होतीस. मी गोलमेज परिषदेला जात होतो. माझा सर्वत्र जयजयकार सुरु होता. तू पाहत होतीस. तुझं मन गदगदून आलं होतं. कृतार्थतेनं तू ओथंबून आली होतीस. तू शब्दांनी बोलत नव्हतीस; पण तुझे डोळे जे शब्दांना सांगता येत नसते तेही सांगत होते. तुझं मौन शब्दाहून अधिक बोलकं झालं होतं. तुझ्या गळयातील आवंढा तुझ्या ओठापर्यंत येऊन थडकत होता. ओठातील शब्दांच्या भाषेपेक्षा डोळयातील आसवांचीच भाषा त्यावेळी तुझ्या मदतीला धावली होती.


आणि आता इथे लंडनमध्ये या साऱ्याच गोष्टी मनात उभ्या राहिल्या आहेत. मन नाजूक झाले आहे. जीवात कालवाकालव होत आहे. कशी आहेस रमा तू ! आपला यशवंत कसा आहे? माझी आठवण काढतो तो? त्याचे संधीवाताचे दुखणे कसे आहे? त्याला जप रमा ! आपली चार मुलं आपल्याला सोडून गेलीत. आता आहे फक्त यशवंत. तोच तुझ्या मातृत्त्वाचा आधार आहे आता. त्याला आपण जपलं पाहिजे. यशवंताची काळजी घे रमा ! यशवंताला खूप अभ्यास करायला लाव. त्याला रात्री अभ्यासाला उठवीत जा. माझे बाबा मला अभ्यासासाठी रात्री उठवीत. तोवर ते जागे राहत. मला ती शिस्तच त्यांनी लावली. मी उठलो, अभ्यास सुरु केला की ते झोपत असत. अगदी प्रारंभी मला रात्री अभ्यासाला उठण्याचा कंटाळा येई. त्यावेळी अभ्यासापेक्षा झोप महत्त्वाची वाटे. पुढे तर आयुष्यभरासाठी झोपेपेक्षा अभ्यासच मोलाचा वाटत राहिला. याचं सर्वात जास्त श्रेय माझ्या बाबांना आहे. माझ्या अभ्यासाची वात तेवत राहावी म्हणून माझे बाबा तेलासारखे जळत राहत. त्यांनी रात्रीचा दिवस केला. अंधाराचा उजेड केला. माझ्या बाबांच्या कष्टांना आता फळे आली. फार फार आनंद वाटतो रमा आज. रमा यशवंताच्या मनाला असाच अभ्यासाचा छंद लागला पाहिजे. ग्रंथाचा त्याने ध्यास घेतला पाहिजे.


रमा, वैभव, श्रीमंती या गोष्टी निरर्थक आहेत. तू अवतीभोवती पाहते आहेसच. माणसं अशाच गोष्टींच्या सारखी मागे लागलेली असतात. त्यांची जीवनं जिथून सुरु होतात तिथच थांबलेली असतात. या लोकांची आयुष्ये जागा बदलीत नाहीत. आपल्याला असं जगून चालायचं नाही रमा. आपल्याजवळ दुःखांशिवाय दुसरं काहीच नाही. दारिद्रय, गरिबी यांच्याशिवाय आपल्याला सोबत नाही. अडचणी आणि संकटे आपल्याला सोडीत नाहीत. अपमान, छळ, अवहेलना या गोष्टी आपल्याला सावलीसारख्या जखडलेल्या आहेत.


मागे अंधारच आहे. दुःखाचे समुद्रच आहेत. आपला सूर्योदय आपणच झाले पाहिजे रमा. आपणच आपला मार्ग झाले पाहिजे. त्या मार्गावर दिव्यांची ओळ आपणच झाले पाहिजे. त्या मार्गावर जिद्दीचा प्रवास आपणच झाले पाहिजे.


आपणाला दुनिया नाही. आपली दुनिया आपणच निर्माण केली पाहिजे. आपण असे आहोत रमा. म्हणून म्हणतो यशवंताला खूप अभ्यास करायला लाव. त्याच्या कपडयांची काळजी घे. त्याची समजूत घाल. त्याच्यात जिद्द जागव. मला तुझी सारखी आठवण येते. यशवंताची आठवण येते.


मला कळत नाही असं नाही रमा, मला कळतं की तू दुःखांच्या या वणव्यात स्वतः करपून जात आहेस. पाने गळत जावीत आणि जीव सुकत जावा त्याप्रमाणे तू होते आहेस. पण रमा मी तरी काय करु ! एका बाजूने हात धुवून पाठीशी लागलेले दारिद्रय. दुसऱ्या बाजूने माझ्या जिद्दीने घेतलेला वसा. वसा ज्ञानाचा !


मी ज्ञानाचा सागर उपसतो आहे. मला इतर कशाचे यावेळी भान नाही; पण ही शक्ती मला मिळवण्यात तुझाही वाटा आहे. तू इथे माझा संसार शिवत बसली आहेस. आसवांचे पाणी घालून माझे मनोबल वाढवीत आहेस. म्हणून मी बेभान मनानं ज्ञानाच्या तळगर्भाचा वेध घेतो आहे.


खरं सांगू रमा, मी निर्दय नाही. पण जिद्दीचे पंख पसरून आकाशात उडणाऱ्या मला कोणी सादही घातली, तरी यातना होतात. माझ्या मनाला खरचटतं आणि माझ्या रागाचा भडका उडतो. मलाही हृदय आहे रमा ! मी कळवळतो. पण मी बांधलो गेलो आहे क्रांतीशी ! म्हणून मला माझ्या स्वतःच्या भावना चितेवर चढवाव्या लागतात. त्याच्या तुला, यशवंतालाही कधी झळा पोचतात. हे खरं आहे; पण यावेळी रमा मी हे उजव्या हाताने लिहितो आहे आणि डाव्या हाताने अनावर झालेली आसवे पुसतो आहे. सुडक्याला सांभाळ रमा. त्याला मारु नको. मी त्याला असे मारले होते. त्याची आठवणही कधी त्याला करुन देऊ नको. तोच आता तुझ्या काळजाचा एकुलता एक घड आहे.


माणसांच्या धार्मिक गुलामगिरीचा, आर्थिक आणि सामाजिक उच्चनीचतेचा आणि मानसिक गुलामगिरीचा पत्ता मला शोधायचा आहे. माणसाच्या जीवनात या गोष्टी ठाण मांडून बसलेल्या आहेत. त्यांना पार जाळून-पुरुन टाकता आला पाहिजे. समाजाच्या स्मरणातून आणि संस्कारातूनही या गोष्टी नाहीशा झाल्या पाहिजेत.


रमा ! तू हे वाचते आहेस आणि तुझ्या डोळयात आसवं आली आहेत. कंठ दाटला आहे. तुझं काळीज थरथरायला लागलं आहे. ओठ कापू लागले आहेत. मनात उभे राहिलेले शब्द ओठापर्यंत चालतही येऊ शकत नाहीत. इतकी तू व्याकूळ झाली आहेस.


रमा, तू माझ्या आयुष्यात आली नसतीस तर? तू मनःसाथी म्हणून मिळाली नसतीस तर? तर काय झालं असतं? केवळ संसारसुखाला ध्येय समजणारी स्त्री मला सोडून गेली असती. अर्धपोटी राहणे, गोवऱ्या वेचायला जाणे वा शेण वेचून त्याच्या गोवऱ्या थापणे किंवा गोवऱ्या थापायच्या कामावर जाणे कोणाला आवडेल? स्वयंपाकासाठी इंधन गोळा करायला जाणे, मुंबईत कोण पसंत करील. घराला ठिगळे लावणे, वस्त्रांना शिवत राहणे, एवढयाच काडयाच्या पेटीत महिना निभला पाहिजे, एवढेच ध्यान्य, एवढेच तेलमीठ पुरले पाहिजे हे माझ्या मुखातून बाहेर पडलेले गरिबीचे आदेश तुला गोड वाटले नसते तर? तर माझे मन फाटून गेले असते. माझ्या जिद्दीला तडे गेले असते. मला भरती येत गेली असती आणि तिला त्या त्या वेळी लगेच ओहोटीही लागली असती. माझ्या स्वप्नांचा खेळच पार विस्कटून गेला असता रमा ! माझ्या जीवनाचा सगळा सूरच बेसूर झाला असता, सगळीच मोडतोड झाली असती. सगळाच मनःस्ताप झाला असता. मी कदाचित खुरटी वनस्पतीच झालो असतो. जप स्वतःला जशी जपतेस मला. लवकरच यायला निघेन काळजी करु नकोस.

सर्वांस कुशल सांग.....!
कळावे,

तुझा.... भीमराव.....!
लंडन, ३० डिसेंबर १९३०

(यशवंत मनोहर यांच्या 'रमाई' या पुस्तकातून साभार)

Thursday, 28 August 2014

म्हणे धर्म ग्रंथांची चिकित्सा करायाची नाही.


 ब्राम्हनानी या देशात ज्या पोथ्या लिहुन ठेवल्या .त्यात सर्व आवास्तव आतिरंजित आनि काल्पनिक मसाला लेवलेल्या कथा सापडतात.ह्या कथांची जर समीक्षा करायचे म्हटले तर तोंडात आळ्या पडतात म्हणे.
हल्ली बर्याच जणांच्या भावनाही दुखु लागल्या.बरे ब्राम्हणांपेक्षा आमच्याच चोमड्या लोकाना हे सहण होइना.जणु काय धर्मग्रंथ लिहिनारे ब्राम्हण यांचे नाजायज बाप होते .
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तरीही आपण गणेश जन्माच्य कथेची समीक्षा करुच
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येकदा पार्वती आंघोळीला गेली आनि तिने .दरवाज्यावर पहारेकरी म्हनुन आंगावरल्या मळाचा गणपती बसवला.

🔶प्रश्न
1)काय मळाचा बनवलेला गणपती जिवंत होवु शकतो .
2)बरे पार्वती येवढी घाणेरडी होती का की जिच्या आंगावर येवढा मळ निघाला.
3)पार्वतीच्या बाथरुमला दरवाजे नव्हते काय ?
4)दरव्याज्यात उभे करायला कुनि दासदास्या नव्हत्या काय ?

आनि आपल्या बायकोला भेटायला शिव आला .तेव्हा गणपतीणे शिवाला बाथरुम मधे जाउ देन्यास मज्जाव केला.
मला आडवनारा तु कोन हे शिवाने विचारले .
मी पार्वतीपुत्र आहे गणपतीने सांगितले.मग मला कसे माहिती नाही आसे शिव म्हनाला.प्रंचंड भांडणे झाली ,युद्ध झाले.
 या युद्धात गणपती मारला गेला.

🔶प्रश्न
1)शिवाला आसे कोनते कोम होते की तो चक्क बायकोला बाथरुम मधे भेटायला गेला ?
शिव थोडाही थांबु शकत नव्हता का ?ज्यामुळे तो गणपतीशी युद्ध करायला तयार झाला ?होल ,बेडरुम सोडुन बायकोला बाथरुम मधे भेटन्याची कारणे धर्मग्रंथ सागतिल काय ?
2)हा गणपती माझा मुलगा आहे हे शिवाला माहिती नव्हते .मग तो नाजायज होता की काय ?
3)बाप मुलाला येकमेकांची ओळख कशी नव्हती.?शिव तर तिन डोळ्याची देवता.
4)बाहेर येवढी मोठी भांडणे चालु आहेत हे पार्वतीला न कळायला ती काय हेडफोन लावुन आंघोळ करत होती की शावर चालु आवाज नाही आला.
5) मुलाचे मुंडके उडवे पर्यंत पर्वती येवढ्यावेळ आंघोळ करत होती काय ?

पार्वती बाहेर आली .पहाते तर काय मुलगा मारला गेलाय .ती शिवाला भांडली .माझा मुलगा जिवंत पाहिजे म्हनाली.शिवाने त्रिशुल फेकला .आणि पहिला प्राणि जो दिसेल त्याचे मुंडके आनुन गणपतिला आनुन बसवले.

🔶प्रश्न
1) गणपती जिवंतच करायचा होता तर बाजुला पडलेले पहिलेच मुंडके का नाहि बसवले गेले ?
2) माणसाला हत्तिचे मुंडके बसेल काय ?
3)द्विपाद प्राण्याला चतुस्पाद प्राण्याचे मुंडके बसते .हे विन्यान मान्य करेल काय ?डोक्टर मान्य करतिल काय ??


मित्रान्नो ही शिव पार्वती आनि गणपतीची सरळ सरळ बदनामी आहे.जी ब्राम्हणान्नी केली..हा ब्राम्हणी खोटेपणा उघड करा
?तर्क करा .सत्य समजुन घ्या.हे av

Thursday, 14 August 2014

!!  युगारंभ  !!

इरावती कर्वे यान्नी युगांत लिहीले .हा शब्द नकारात्म आर्थाचा आहे.म्हंजे युगाचा अंत .त्यांच्या द्रस्टिने तो युगांतच आहे.पन आमच्या द्रस्टीने तो युगारंभ आहे.ब्राम्हणीयुग संपुन आता कुठे आब्राम्हणी युगाची पहाट होत आहे.
" होय हा युगारंभच आहे "
डो.बाबासाहेब आंबेडकर यान्ना आपेक्षीत आसलेला समता ,स्वतंत्रता ,आनि न्याय यावर आधारीत आदर्ष समाज आनि रास्ट्र निर्माण करने हे आमच्या आमच्या युगात करावयाचे बाकी आसलेले काम आहे.

संविधानाच्या रुपाने आमचा युगारंभ झाला.पन इथे परत प्रतिकारंती करण्याची सर्व तयारी ब्राम्हण करुन बसलेत .
म्हनुन मी लिहीतोय.लिहिनार लिहिल.

मी नितिन सावंत ,
या देशाचा भुमीपुत्र या नात्याने ,भारतभुची हाजारो वर्षाची मी व्यथा मांडनार आहे..
आमच्यावर झालेले  धार्मीक ,सांस्क्रतीक ,मानसिक आन्याय आत्याचार.

Thursday, 10 July 2014

सम्राट आशोक  आणि मोर्य साम्राज्य









मौर्य साम्राज्य हे प्राचीन भारताच्या इतिहासातील एक प्रमुख साम्राज्य होते. त्यावर इ.स.पू. ३२१ ते इ.स.पू. १८५ पर्यंत मौर्य वंशाने राज्य केले होते. गंगेच्या खोऱ्यामधील मगध राज्यापासून उगम झालेल्या या साम्राज्याची राजधानी पाटलीपुत्र (आजचे पाटणा) ही होती. हे साम्राज्य इ.स.पू. ३२२ मध्ये चंद्रगुप्त मौर्य याने स्थापन केले. त्याने नंद घराण्याला पराभूत करून आपले साम्राज्य प्रस्थापित केले. त्याने भारतातील सत्तांच्या विघटनाचा फायदा उठवून आपल्या साम्राज्याचा पश्चिमेकडे व मध्य भारतात विस्तार केला. इ.स.पू. ३२० पर्यंत या साम्राज्याने अलेक्झांडरच्या प्रांतशासकांना (क्षत्रप) हरवून पूर्णपणे वायव्य भारत ताब्यात घेतला होता.

५०,००,००० वर्गकिमी एवढा प्रचंड प्रदेश ताब्यात असलेले मौर्य साम्राज्य हे तत्कालीन सर्वांत मोठ्या साम्राज्यांपैकी एक, व भारतीय उपखंडातील सर्वांत मोठे साम्राज्य होते. आपल्या सर्वोच्च शिखरावर असताना हे साम्राज्य उत्तरेला हिमालय, पूर्वेला आसाम, पश्चिमेला पाकिस्तान, अफगाणिस्तान व इराणचे काही भाग इतके पसरले होते. भारताच्या मध्य व दक्षिण प्रदेशांमध्ये चंद्रगुप्त व बिंदुसार यांनी कलिंग (सध्याचा ओरिसा) हा प्रदेश वगळता विस्तार केला. कलिंग नंतर सम्राट अशोकाने जिंकून घेतला. अशोकाच्या मृत्यूनंतर साठ वर्षांनी मौर्य साम्राज्याचा अस्त झाला. इ.स.पू. १८५ मध्ये शुंग या ब्राम्हण साम्राज्याने मौर्यांना कपटाने संपवुन मौर्य साम्राज्य संपुष्टात आणले.

चंद्रगुप्ताने आपल्या कारकीर्दीत सिंधू नदीपलीकडील अलेक्झांडरच्या साम्राज्याचा प्रदेश जिंकून घेतला. चंद्रगुप्ताने सेल्युकस निकेटर याला पराभूत करून इराणचेही काही भाग जिंकून घेतले.

कलिंग युद्धानंतर सम्राट अशोकाच्या कारकीर्दीत कलिंग युद्धानंतर साम्राज्याने ५० वर्षे शांतता व सुरक्षितता अनुभवली. सम्राट आशोक यान्नी आपल्या कारकिर्दित भारतात येकुन 64 हजार विहारे बांधली होती .पन आज ती विहारे कुठेत हा फार मोठा प्रश्न आहे.

Saturday, 21 June 2014

संत तुकोबाराय 





येकदा जगदगुरु संत तुकोबाराय पुन्यातुन दिंडि घेवुन जात होते .मुख्य पुन्याततुन जाताना येका भर चोकात जोराचा पाउस सुरु झाला.दिंडितले सर्व वारकरी आडोसा शोधत इकडे तिकडे पळायला लागले.आणि सर्वजन वेगवेगळ्या ठिकाणी व्हरांड्यात वगैरे जावुन उभे राहीले .परंतु तुकोबाराय मात्र पावसातच भिजायला लागले .त्याच चोकात येकी कडुन मंदिर तर दुसरी कडुन मस्जिद होती .मंदिराच्या ब्राम्हनानी लगेच दरवाजे बंद केले.पन मस्जिदित मात्र चर्चा सुरु झाली ." आरे ओ तुकाराम भिग रहे है." "ओ बहुत ही बडे संत है "
वगैरे वगैर
आणि मग काय आश्चर्य मस्जितीतील मुसलमानानी तुकोबारायाना आत मधे आदरपुर्वक धरुन नेले .नंतर सर्व दिंडि मस्जिद मधे गेली.सर्व वारकरी मस्जिदमधे जमले.रात्रीची किर्तनाची वेळ झाली.मुर्ती पुजा न माननार्यांच्या मस्जिदित तुकोबा काय बोलतील आनि कसे किर्तन करतील याची सर्वाना उत्कंठा लागली .तुकोबा किर्तनाला उभे राहीले आणि आभंग घेतला.

आल्ला देवे अल्ला दिलावे !
अल्ला दारु अल्ला खिलावे !!
अल्ला बगर नही कोये !
अल्ला करे सो ही होये !! 1 !!

(आभंग क्र.444.गाथा देहुची प्रत )
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बोला जगदगुरु संत तुकाराम महाराज की ...
नितिन सावंत परभणी
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Tuesday, 6 May 2014

ब्राम्हण कभी इमानदार नही हो सकता

ब्राम्हण कभी इमानदार नही हो सकता
1) प्रतीदिन जिसको हिंसा करके बली चढायाजाता है उस महाकाली की पुजा ब्राम्हन करता है . यानी की हिंसा का ब्राम्हान समर्थण करता है .
ओर दुसरी तरफ महावीर ओर तथागत बुद्ध की मुर्ती के सामने आहींसा की बात करता है
2) ब्राम्हण उस पर्शुराम की पुजा करता है जिसने 21 बार क्षत्रियोंका नरसंहार कीया
ओर उस क्षत्रिय राम की भी पुजा कर्ता है .
3)ब्राम्हाण खुद को हिंदु धर्म का ठेकेदार केहलवाता है ओर जिस हिंदु धर्म मे पिर , दरगाह को मान्यता नही है फिर भी उस दरगाह ,पिर का पुरोहीत पुजारी बनता है .
4) 33 करोड देवी देवताओ को मान्यता देनेवाला ब्राम्हाण साइ मंदिर मे जाकर केहता है " सब का मालिक येक "
5) गो हमारी माता है केहनेवाला ब्राम्हण आपनी शादी मे आटे की गाय काटता है .ओर गाय भी खाता है
6)  कभी केहता है मुसलमान खराब है तो कभी केहता हॆ बोद्ध आछे नाही है
ओर रेस्तेदारी तो दोनोसे भी करता है . झगडे लगाने मी हमेश्या माहीर
7)स्टेज से समानता के उपर बडी उचे आवाज मी भाषण देनेवाला ब्राह्मण . घरमे छुत आछुत की बाते करता है . असमानता , गैर बराबरी हमेश्या बरकरार रखनेका काम ब्राह्मण करता है
8)मंदिरो आश्रामोन्से से अंधश्रद्धा का प्रचार करनेवाला ब्राह्मण अंधश्रद्धा निर्मुलन समितीमे भी  काम करता है .

दोस्तो दोहरे चरीत्रवाले लोग कभी इमानदार नही होते .और ब्राम्हाण हामेश्या दोहरे चरीत्रमे जीता है .ब्राम्हन बेइमान है .
तो इन बेइमानो को हाटाओ इस देश से
 ब्राह्मण भगवो
देश बचावो

Monday, 14 April 2014

कॉ. शरद पाटिल

जानिव-नेनिवान्वेशी तर्कशास्त्रकार कोम्रेड शरद पाटिल यान्ना भावपुर्न शिवांजली

इतिहास हा 2 पद्धतीने आभ्यासता येतो
1)जानीवे च्या ब्राम्हनी आन्वेशन पद्धतीने आणि
2)नेनीवेच्या अब्राम्हनी आन्वेशन पद्धतीने .

हे सर्व प्रथम मंडुन इतिहासाचे आनेक न उलगडलेले पैलु सहज उजेडात आननारे महान व्यक्तिमत्व म्हनजे को.शरद पटिल होय .

को.शरद पाटिल यान्नी जगाला निरुती ह्या अद्यगनमातेचा वारसा शोधुन देन्याचे काम सर्वप्रथम केले . आनि जगभरातल्या आनेक देश्यान्नी ते मान्य देखिल केले .वैराज आर्थत शक्त धर्माच्या परुजिवनाच्या शंभुराजे , शिवरायांच्या कार्याला आधुनिक भारतात येकमेव लिखित पाठिंबा देनारे the great शंशोधक म्हनजे को.शरद पाटिल होत . जाती आंताच्या लढ्याचा वर्ग व्यवस्थेत समावेशच होत नाहि हे शिद्ध करुन मार्क्स ची आनेक मते खोडताना त्याना फार त्रास झाला .म्हनुन स्वतंत्र मार्क्स फुले आंबेडकरवाद काढुन भारतात जाती निर्मुलनाचे काम त्याना करावे लागले .आनि महर्शि विठठल रामजी शिंदे सारखे येकाकी राहान्याचे दुख आयुश्यभर त्यांच्या वाट्याला आले .काल (12 ऐप्रिल 2014) ला भारताने येक केवढा मोठा महापुरुश गमवला याचा आंदाज सुद्धा बांधता येनार नही .आलिकड्च्या काळात येकांगी लिखान करनार्या लेखकानी तर समग्र शरद पाटिल वाचलेच पाहिजेत . आणि ज्याना जातिअंताचा लढा लढायचाय त्यान्नी तर 'सपा' ला समजुन घेतलेच पाहिजे .आपली नाळ थेट मात्रसत्ताक ,स्त्रीसत्ताक गण व्यवस्थेशी जोडुन देवुन आपला वारसा पुन्हा आपल्याला परत मिळवुन देन्याचे काम 'सपा' नी केले आहे . नहुशाचे शिल्प हे भारताचे राट्रीय शिल्प व्हावे आशी त्यांची इछा होती .त्यांची मनोकामना लवकरच पुर्ण होवो.

त्यांच्या कार्य कर्त्रुत्वाला हाजारोवेळा सलाम .